लोकतंत्र और लोकशक्ति

सुरेश ठाकुर

“लोकतंत्र सबसे निकृष्ट शासन पद्दति है” | ये कथन करते समय विंस्टन चर्चिल के मष्तिष्क में शासक और प्रजा के अंतर्सम्बंधों का विसंगतियों से परिपूर्ण दृश्य अवश्य विद्यमान होगा |

शासक और शासित के बीच के अन्तर को संकीर्ण करती इस पद्दति को मैं श्रेष्ठतर मानता हूँ | किंतु इस के साथ एक बड़ी शर्त भी लागू है | शर्त है लोक शक्ति का विवेकशील होना | एक ऐसी व्यवस्था जहाँ प्रजा स्वयं परोक्षतयः शासक होती हो वहाँ उस में एक शासक की दृष्टि होना अति आवश्यक है | दो फुट के वर्गाकार कक्ष में रखी ई.वी.एम. पर बटन दबा कर अपना प्रतिनिधि चुनते समय एक आम व्यक्ति क्या सोच रहा है, ये बहुत महत्वपूर्ण है | जिस शासन को चुनने का उस के पास अधिकार होता है वही शासन उसे चयन के लिए वैचारिक दायरा देता है | येन केन प्रकारेण जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संघर्ष करता व्यक्ति इस के आगे कैसे सोच सकता है भला | आदर्श स्थिति ये है कि शासक के लिए सत्ता साधन होना चाहिये और प्रजा का कल्याण साध्य | किंतु चूँकि सत्ता में शासक को भ्रष्ट बनाने के सारे गुण मौजूद होते हैं ये चाणक्य ने भी स्वीकारा है | अतः सामान्य रुप से शासक के लिए सत्ता साध्य होती है तथा प्रजा साधन और यही वह दुर्भाग्यपूर्ण स्वाभाविक स्थिति है जिसने विंस्टन चर्चिल को ऐसा कथन करने के लिए बाध्य किया होगा | स्वस्थ जनतंत्र के लिए स्वयं के साथ साथ समाज और राष्ट्र के हितों का बुद्धिमत्तापूर्ण संज्ञान रखने वाली विवेकशील जनशक्ति आवश्यक है | जनतंत्र को जन-कल्याणकारी बनाए रखने के लिए आम जन को आवश्यक शक्ति संचय स्वयं करना होगा ताकि लोकतंत्र के चारों स्तम्भों को जन कल्याण के यथार्थ मार्ग पर अग्रसर किया जा सके |

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